जब बसंत भी गंध न दे तो
किससे मन की बात कहें ?
बेला, जुही, गुलाब, मोंगरा,
सबके अपने रंग अलग हैं,
बाजारों की तितलीपंखी
मुस्कानों के ढंग अलग हैं ।
टेसू के बदले अब कैसे
नागफनी के साथ रहें ?
अब बेगनबेलिया प्यार की
लिपट-लिपट कर चुभन बढ़ाती,
रोज अधर से संधिपत्र लिख
अहसासों की तपन बढ़ाती ।
बातूनी आधुनिक रूप का
कब तक हम उपहास सहें ?
अब मिलनों के शयनकक्ष में
विश्वासों की गंध कहाँ ?
अब कनेर का सोनजुही से
सिंदूरी संबंध कहाँ ?
कैसे चैता गीत भुलाकर
हम डिस्को के साथ बहें ?